भीम प्रज्ञा न्यूज़
बलिदान ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी 1516 / 12.5.1459)
राजाराम और उसके माता-पिता का बलिदान इतिहास की एक विस्मयकारी घटना है। एक ही परिवार के तीन व्यक्तियों का दुर्ग की नींव में जीवित चुना जाना राजभक्ति और स्वामीभक्ति की एक अनोखी मिसाल है। त्याग और बलिदान का ऐसा उदाहरण इतिहास में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। राजाराम अछूत/मेघवाल/भांबी/नरवभाटी (गौत्र से कड़ैला) जाति से था। अछूतों के बलिदान को इतिहास में उपयुक्त स्थान देना उच्चवर्ण लेखकों ने शायद अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं समझा। अन्यथा कोई कारण नहीं की इतिहास की इस सामान्य घटना को वास्तविक रुप में प्रस्तुत नहीं किया गया। राजाराम के विषय में तथ्यों को खोजने का कभी सही रूप में प्रयास ही नहीं किया गया।
राजाराम के अन्य नाम देवा/देवासी/रजिया थे। राजाराम के पिता का नाम मोहणसी, माता का नाम केसर (नागौर जिले के परबतसर से भूरिया गौत्र के जीवणजी मेघवाल की पुत्री), बड़े भाई का नाम माणक, छोटे भाई का नाम मेगा, बहन का नाम कोयल, जीवनसंगिनी का नाम गौरांबाई/सुंदर, पुत्र दलजी और दलजी थे। छोटे भाई मेगा ने गांव भिंचरडी के पास वि.सं.1530 में एक नाड़ी/तालाब का निर्माण करवाया था जिसे मेगोलाई नाम से पुकारते थे।
राजाराम धार्मिक प्रवृत्ति के एक साहसी तथा त्यागी पुरुष थे। राजभक्ति, स्वामीभक्ति तथा समाजसेवा की भावना से उनका जीवन ओत-प्रोत था। उसका परिवार जोधपुर शहर के शाहपुरा क्षेत्र का रहने वाला था। राजाराम का पैत्रक भवन भग्नावस्था (खंडर) में आज भी मौजूद है, जिसे कड़ैलो की खिड़की कहते हैं।
प्रमाण
1.जोधपुर राज्य की ओर से प्रकाशित पुस्तकों में शहीद राजाराम का उल्लेख श्रद्धा के साथ किया गया है।
2.बही भाटों (रावों की पोथियां) इस ऐतिहासिक घटनाओं का विस्तृत वर्णन लिखा हुआ है।
3.शाहपुर के मेघवालों के पास में विश्वसनीय दस्तावेज था, इसकी प्रति डॉ महावीर सिंह गहलोत के पास भी मौजूद है।
4.राजाराम के वंश की वंशावली लिखने और पढ़ने वाले राव प्रहलाद निवासी पाल (जोधपुर) के पास पोथी विद्यमान है।
5.इस संबंध में सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज राजस्थान राज्य अभिलेखागार जोधपुर में उपलब्ध है।
6.17 नवंबर, 1899 शाहपुरा के भांबियो/मेघवालों ने अपनी आर्थिक स्थिति खराब होने से जोधपुर दरबार से मदद प्राप्त करने के उद्देश्य से एक रिपोर्ट पेश की थी। यह अभिलेख भी सौ साल से अधिक पुराना है।
7.राजाराम व उसके माता पिता को किले की नींव में जिंदा चुना गया, जहाँ पर खजाना और नक्कारखाना की इमारतें बनी हुई है। इस बलिदान को ध्यान में रखते हुए सूरसागर खेड़ा के पास राजाराम के वंशजों को एक जमीन का टुकड़ा "राजबाग" (जो अब भी है) नाम से दिया गया तथा इन्हें जबरन मजदूरी या बेगार से मुक्त रखा गया। होली के त्यौहार पर भांबियों की गैहर (जुलूस) को किले में गाजे-बाजे के साथ जाने का अधिकार प्राप्त है जो अन्य किसी जाति को नहीं है।
नरबलि के कारण
बलि किसी भी तरह की हो, दिया जाना हिंसा है, अपराध है। आर्य-ब्राह्मणों ने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए समाज में अंधविश्वास फैलाया।
1.कालिका पुराण जैसे धार्मिक ग्रंथ जिनमें नरबलि को महिमामंडित किया गया है कि एक बार नरबलि देने से देवी चंडिका 1000 वर्ष तक प्रसन्न रहती है तथा तीन नरबलियों से 100000 वर्ष तक।
2.आर्य-ब्राह्मणों ने यह भी झूठा प्रचार किया कि बलि के जीव सीधे स्वर्ग में जाते हैं।
3.राजपूत लोगों में यह विश्वास है कि यदि किले की नींव में कोई जीवित आदमी गाड़ा जाए तो वह किला उसके बनाने वाले के वंशधरों के हाथ से कदापि नहीं निकलता और दुर्ग स्थाई रहता है।
4.राजा कि यह भावना की नरबलि देने से शत्रु कभी किले पर आक्रमण नहीं करेंगे। किला अभेद्य और अजेय रहता है।
5.ब्राह्मणों की यह राय की किले की नींव में नरबलि देने से शकुन शुभ होते हैं।
रावजोधा द्वारा अछूत राजारामजी की बलि दिए जाने के कारण
1.क्षत्रिय हमेशा महत्वकांक्षी रहे हैं। किसी छत्रिय की बलि दी जाती तो निश्चित ही वह बदले में राज्य का हिस्सा, जागीरें, गांव, जमीने, धन दौलत और मरणोपरांत अलंकरण या उपाधियों आदि की अपेक्षा करता।
2.यह अंतर्निहित संभावना थी कि जिस क्षत्रिय का बलिदान दिया जाता उसकी और उसके वंश की यश और कीर्ति फैलती। स्वयं एक क्षत्रिय राजा के होते दूसरे छत्रिय की कीर्ति फैलाने का काम रावजोधा नहीं कर सकता था।
3.रावजोधा किसी छत्रिय की बलि देकर हमेशा के लिए उसके एहसान तले दबना नहीं चाहता था। इसलिए दुर्गे की नींव में क्षत्रियों को चुनवाना उसके हित में नहीं था।
4.समृद्धिशाली वर्ग के किसी व्यक्ति की बलि दी जाती तो उससे राजा के खिलाफ विद्रोह विरोध का खतरा था। यह खतरा रावजोधा मोल लेना नहीं चाहता था।
5.आर्य-ब्राह्मणों ने शास्त्रों और उपदेशों से राजा और प्रजा के मन में यह बैठा दिया था कि ब्राह्मणों की हत्या से घोर नरक की यात्राएं भोगनी पड़ती है। इसलिए रावजोधा किसी ब्राह्मण की बलि चढ़ाकर ब्रह्महत्या के पाप का भागी नहीं बनना चाहता था।
6.ज्योतिषियों ने रावजोधा को यह राय दी कि इस शुभ मुहूर्त के लिए ऐसे व्यक्तियों को लाया जाए जो नींव में जीवित गड़ने के लिए स्वेच्छा से तैयार हो। मरना कोई नहीं चाहता और उसमें भी मुफ्त में मरने वाले बिरले ही होते हैं। परंपरा का निर्वाह करना व्यक्ति की विवशता होती है मगर परंपरा से हटकर निस्वार्थ भाव से स्वोत्सर्ग करना भिन्न बात है। समाज में सती प्रथा जब प्रचलन में थी तब नहीं चाहने पर भी स्त्रियों को सती होना पड़ता था। मगर बिना परंपरा के नींव में जीवित चुने जाने का किसी को निमंत्रण दिया जाए तो शायद ही कोई तैयार हो। संभव है इस कठिन कार्य के लिए राजाराम और उसके माता-पिता को ही प्रेरित किया गया हो।
परिस्थितियों पर गौर करने से प्रतीत होता है कि राजाराम और उसके माता-पिता ही बलिदान के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प थे। वे अछूत वर्ग से थे। यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से कमजोर, सामाजिक दृष्टि से तिरस्कृत, राजनीतिक दृष्टि से चेतना शून्य था। ऐसे वर्ग के लोगों को जीवित चुनवाने पर प्रशासन के विरुद्ध आवाज उठने का खतरा नहीं था। उन्होंने बलिदान निस्वार्थ भाव से दिया था। उनकी कोई महत्वकांक्षा नहीं थी। यही वजह है कि रावजोधा को उनके बलिदान की कोई बड़ी कीमत नहीं चुकानी पड़ी।
इस तरह राजाराम व उसके माता पिता को ही किले की नींव में जीवित चुनने का रावजोधा को निर्णय लेना पड़ा।
नरबलि जैसे अमानवीय कुकृत्य का असली अपराधी कौन?
नरबलि हत्या जैसा गंभीर अपराध है जिसकी सजा मृत्युदंड है। नरबलि देने वाला किसी भी दृष्टि से दोषमुक्त नहीं हो सकता।
1.निसंदेह रावजोधा इस नरबलि का मुख्य दोषी है।
2.ब्राह्मण ज्योतिषी गणपतदत्त उपाध्याय ने रावजोधा को नरबलि के लिए उत्प्रेरित किया था इसलिए वह समान दोषी है। कानून में दुष्प्रेरक को मुख्य अपराधी के बराबर दोषी माना गया है और उसके लिए दंड का प्रावधान मुख्य अपराधी के बराबर है।
3.कालिका पुराण जैसे धार्मिक ग्रंथ जिनमें नरबलि को महिमामंडित किया गया है।
4.कालिका पुराण जैसे ग्रंथों के "लेखक" जिनमें नरबलि को महिमामंडित किया गया है।
5.कालिका पुराण जैसे धार्मिक ग्रंथों के "संरक्षक" जिसमें नरबलि को महिमामंडित किया गया है।
कुछ मान्यताएं जैसे
6.राजपूत लोगों में यह विश्वास है कि यदि किले की नींव में कोई जीवित आदमी गाड़ा जाए तो वह किला उसके बनाने वाले के वंशधरों के हाथ से कदापि नहीं निकलता और दुर्ग स्थाई रहता है।
7.राजा कि यह भावना की नरबलि देने से शत्रु कभी किले पर आक्रमण नहीं करेंगे। किला अभेद्य और अजेय रहता है।
8.ब्राह्मणों की यह राय की किले की नींव में नरबलि देने से शकुन शुभ होते हैं।
राजाराम की बलि से उपजे सवाल
राजाराम और उसके माता-पिता का बलिदान कोई मामूली घटना नहीं है। यह विश्व इतिहास में एक ऐसी अनोखी घटना है जो इससे पहले ना कभी हुई है और शायद बाद में न कभी होगी। इतिहास के इतने बड़े सत्य को विलुप्त और विकृत करके भारतीय इतिहासकारों ने अपनी निष्पक्षता की छवि को धूमिल ही किया है। यह सही है कि देश, काल और परिस्थिति के अनुसार मान्यताएं बदलती रहती है। सैकड़ों वर्ष पूर्व की मान्यताएं आज भी सही हो यह जरूरी नहीं है। इसलिए रावजोधा ने जो कुछ भी किया उसके लिए आज उसके वंशजों को उत्तरदाई नहीं ठहराया जा सकता। परंतु इतिहास की घटनाओं का विश्लेषण किया जाना स्वाभाविक प्रक्रिया है। मगर विश्लेषण करते समय हममें इतना साहस तो होना ही चाहिए कि हम सही को सही और गलत को गलत कहा जा सके। कोई शक्तिशाली किसी कमजोर के साथ जोर, जुल्म, अन्याय, अत्याचार और शोषण करता है तो कमजोर व्यक्ति सामना करने की स्थिति में नहीं होता है। मगर वह अवसर मिलने पर अपने जुल्म की दास्तान कह डालता है। अनेकों बार आदमी की अव्यक्त कहानी उसके घाव ही व्यक्त कर देते हैं। यह भी देखने में आया है कि समय के साथ घाव तो भर जाते हैं मगर उसके काले धब्बे फिर भी बने रहते हैं और घटना से संबंधित सवाल पीढ़ियों तक खड़े रह जाते हैं। राजाराम और उसके माता-पिता की शहादत पीढ़ियों बाद भी आज रावजोधा, धर्माधिकारियों और समाज से सवाल पूछ रही है।
किसी भी युग में निर्दोष लोगों की जान लेने का अधिकार किसी भी धर्म, कानून और समाज ने किसी भी शासक को कभी नहीं दिया। राजाराम और उसके माता-पिता निर्दोष हैं, यह इतिहास से प्रमाणित है। यदि राजाराम और उसके माता-पिता सामाजिक उत्पीड़न के शिकार हुए हैं तो इसे किसी भी कसौटी पर न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। क्षण भर के लिए इतिहासकारों की बात को सही भी मान लें कि राजाराम और उसके माता-पिता ने स्वेच्छा से जीवित चुने जाने के लिए अपने आपको समर्पित किया था तो भी इस तर्क के आधार पर (नरबलि और) नरबलि देने वालों को दोषमुक्त नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए आज कोई व्यक्ति स्वेच्छा से देवी के सामने बलि के लिए अपने आपको प्रस्तुत कर भी दे तो क्या नरबलि देने वाले व्यक्ति को धर्म, कानून या समाज निर्दोष मान लेगा? बिल्कुल नहीं। नरबलि देने वाला व्यक्ति तो हर दृष्टि से अपराधी है।
राजाराम की शहादत सवाल पूछती है धर्म के उन ठेकेदारों से जिन्होंने शूद्र को हमेशा निम्न और अस्पृश्य समझा। उसके मंदिर प्रवेश से, छू जाने से और यहाँ तक कि उसकी छाया तक किसी उच्चवर्ण पर पड़ जाने मात्र से धर्म भ्रष्ट होने का समाज में भ्रम पैदा किया गया। मनुस्मृति के रचनाकार ने अनेक स्थानों पर चारों वर्णों में से ब्राह्मण वर्ण को पवित्र और श्रेष्ठ माना। रावजोधा नए दुर्ग के निर्माण जैसा महान और पवित्र कार्य का शुभारंभ करने जा रहे थे। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार बलि तो तीन ब्राह्मणों की दी जानी चाहिए थी। शुद्र वर्णिय राजाराम और उसके माता-पिता की बलि दिए जाने पर यहाँ उनका धर्म भ्रष्ट क्यों नहीं हुआ। पाखंडी धर्माधिकारियों की मान्यता के अनुसार तो शूद्र की बलि तो स्वीकार ही नहीं की जानी चाहिए थी।
राजाराम का बलिदान इस तथ्य को उजागर करता है कि राज्य और समाज के व्यापक हित में जब भी त्याग और बलिदान की आवश्यकता हुई तो शूद्र वर्ग ही आगे आता रहा है। समाज के अन्य वर्गों का त्याग और बलिदान स्वार्थ पर आधारित था। ब्राह्मण वर्ग धर्म की आड़ में अपनी उदरपूर्ति के लिए समाज को गुमराह करके अंधविश्वासों का जाल फैलाता रहा। ब्राह्मणों ने हाथ फैलाकर समाज से लिया ही लिया, बलिदान के नाम पर दिया कभी नहीं।
रणबांकुरे कहे जाने वाले क्षत्रियों ने युद्ध लड़े और अपने सर कटवाए मगर उसके पीछे कारण ढूंढे जाए तो कहीं ना कहीं स्वार्थ की बू आएगी। राज्य, धन, पद और सुख-सुविधा के लिए इन्होंने अपनी बहन-बेटियां शत्रु को समर्पित करने से लेकर मातृभूमि के प्रति गद्दारी करने तक के कारनामे कर डालने में कभी संकोच नहीं किया। रण स्थल पर जाकर शत्रुओं से मुकाबला करना उनकी मजबूरी थी। वरना शत्रु उन्हें उनके घर में घुसकर मार डालते। उन्हें अपनी आत्मरक्षा के लिए भी लड़ना जरूरी था। राज्य की रक्षा नहीं करते तो उनका स्वयं का अस्तित्व संकट में पड़ता। क्षत्रियों ने मजबूरी में ही जाने गंवाई है। स्वार्थरहित उद्देश्यों के लिए कभी नहीं मरे। इसी में ही राजाराम की शहादत का जवाब छुपा हुआ है कि किले की नींव में जीवित चुने जाने के लिए कोई क्षत्रिय आगे क्यों नहीं आया?